जुलाई, १९५७

 

 बच्चोंके साथ यह बातचीत असामान्य

रूपसे मंगलवारको ध्यानसे पहले हुई थी ।

 

 हमने कहा था कि हम अपने-आपको विधिवत् साधनाके लिये तैयार कर रहे है... । इस विषयमें एक बात ऐसी है जिसपर मैं पहले भी बहुत जोर दे चुकी हू, पर (वेद है तुम लोगोंपर उसका कुछ अधिक असर नहीं हुआ । मुझे ख्याल आया कि भावी साधनाके निमित्त तुम्हें तैयार करनेके लिये शायद उसीसे शुरू करना अच्छा रहेगा ।

 

         तो, आजके हमारे ध्यानका विषय होगा : ''वाणीके असंयमद्वारा होने- वाली हानि ।',

 

         अनेक बार मैंने तुमसे यह कहा है कि प्रत्येक शब्द जो निरर्थक रूपमे बोला जाता है एक खतरनाक बकवास है । पर इस प्रसंगमें, ''स्थिति'' अब चरम सीमापर पहुंच गयी है (ऐसी कई बातें हैं जो कही गयी है, बार-बार कही गयी है, और उन सबने जिन्होंने मनुष्य-जातिको पूर्ण बनानेका प्रयत्न किया है उन्हें दोहराया है - दुर्भाग्यवश उनका अधिक फल नहीं निकला), यह प्रश्न है निन्दात्मक बातचीतका... परापवादका, उस रसिका जो दूसरोंकी बुराई करनेसे मिलता है । जो इस असंयममें जिप्त होता है वह

 

 ' उन दिनों माताजी खेलके मैदानमें खेल-कूदके बाद मूंगफली या कुछ मिठाई बांटा करती थीं -- अनु.

 

अपनी चेतनाको नीचे गिराता है, पर इस असंयमके साथ जब व्यक्ति गन्दी तकरार पर उतर आता है और अशिष्ट शब्दोंका प्रयोग करता है तो वह आत्महत्याके बराबर है, अपने अंदर आध्यात्मिक आत्महत्याके बराबर है ।

 

         मैं इस बातपर जोर देती हू और आग्रहपूर्वक कहती हू कि इसे अत्यन्त गंभीरतासे लो ।

 

 ( ध्यान)

 

१३६